कोविड-19 ने इस मिथक को तार-तार कर दिया है। हमारा वैयक्तिक स्वास्थ्य हमारे ग्रह के हमारे पड़ोसियों के स्वास्थ्य से अलग नहीं किया जा सकता। और न ही यह उन संरचनागत कारकों और नीतिगत निर्णयों से अलग किया जा सकता है, जो हमारे स्वास्थ्य परिणामों को हमारे जन्म लेने के बहुत पहले से ही निर्धारित करते रहे हैं।
इन अंतर्संबंधों के परिप्रेक्ष्य में, स्वास्थ्य का अधिकार, एक सार्वजनीन अधिकार है। आपका जीवन आप के बगल के पड़ोसी के जीवन से तनिक भी कम या अधिक मूल्यवान नहीं है क्योंकि दोनों के ही भाग्य गहन रूप से अंतर्गुँथित हैं।
आज, स्वास्थ्य के सार्वजनीन अधिकार में बाधा संसाधनों की कमी अथवा तकनीकी के अभाव की नहीं है। इसके उलट, इस विश्व की सम्पदा - बेहतर निवेश किए जाने पर - साल के अंत से पहले ही पेंडेमिक महामारी का अंत कर सकती है।
इसके बजाय, हमारे हाथ एक दूसरे मिथक से बंधे हुए हैं : यह कि सार्वजनिक स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था के बीच परस्पर-निर्भरता (ट्रेड-ऑफ) का रिश्ता है।
परस्पर-निर्भरता की यह मान्यता निर्देशित करती है कि सभी सार्वजनिक नीतियों को आर्थिक प्रगति के महाप्रभु के अधीन रहना होगा - यदि हमारा जीवन दांव पर लगा हो तब भी। निजी स्वास्थ्य की अवधारणा इसी दूसरे मिथक से जन्म लेती है, जो हमारे शरीरों को एक माल, और आवश्यक स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं के लिए एक बाज़ार बना देती है।
निश्चित रूप से, सारी दुनिया में सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र की संरचना सचेत-सायास ढंग से मुनाफ़े के उद्देश्य की सेवा के लिए बनायी गयी है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इनके परिणाम अपर्याप्त और ग़ैर-समतामूलक हैं, जो निजी स्वास्थ्य प्रावधानों का उपयोग कर पाने में संसाधन विहीन गरीब और हाशिए के समुदायों को पूरी तरह बहिष्कृत कर देते हैं।
कोरोना पेंडेमिक के स्वास्थ्य प्रभावों और उनके प्रति नीतिगत प्रत्युत्तरों के प्रभावों के ठोस प्रमाणों के आधार पर, वायरस प्रभाव में नस्लीय, जेंडर और वर्गीय पहलुओं से इंकार नहीं किया जा सकता है। उत्तर में सामाजिक संकट से निपटने में सार्वजनिक स्वास्थ्य और आर्थिक व्यवस्था तंत्र दोनों की व्यवस्था जन्य अक्षमता की नंगी सच्चाई भी खुल कर उजागर हो चुकी है। उन देशों ने जो सफल रहे हैं - जैसे वियतनाम, क्यूबा और न्यूजीलैंड - सार्वजनिक स्वास्थ्य को आर्थिक संपदा के रूप में देखा है।
एक बार फिर हम मूलभूत प्रस्थापना की ओर लौटते हैं। स्वास्थ्य, अपने सम्पूर्ण पक्षों- परिप्रेक्ष्यों में सार्वजनिक हित अनिवार्यता है।
हम एक ऐसी दुनिया किस तरह बनाएं जो इस सीधी-सरल प्रस्थापना को प्रतिबिंबित करती हो ?
पहला कदम है वि-उपनिवेशीकरण (डिकॉलोनाइजेशन)। वैश्विक दक्षिण के राष्ट्र सार्वजनिक स्वास्थ्य का वादा नहीं पूरा कर सकते, जब तक उनके हाथ उन नव-औपनिवेशिक शर्तों से बंधे हैं जो दानदाताओं की फंडिंग और बहुपक्षीय क़र्ज़ों के साथ अविछिन्न रूप से जुड़ी रहती हैं। शीर्ष-से-नीचे की ओर की यह दृष्टि राष्ट्रों को उनकी स्वास्थ्य सेवाओं को वित्तपोषित करने की संप्रभुता से वंचित कर देती है, स्वास्थ्य अधिसंरचना का निजीकरण करती है, और सामाजिक नीतिगत प्रावधानों को पंगु बना देती है।
इनमे से अधिकांश राष्ट्रों ने 60 और 70 दशक के वर्षों में सहज-स्वाभाविक रूप से सार्वजनीन स्वास्थ्य सेवाओं का वादा किया था। फिर आ पहुँचा ढांचागत समायोजन। 1980 और 1990 दशक के वर्षों के दौरान थोपी गयी वाशिंगटन सहमति ने स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र को निजीकरण और वि-नियमीकरण के मुनाफेदार क्षेत्र के रूप में आमूल-चूल परिवर्तित कर दिया। उपयोग शुल्क (यूजर फी) शुरू करने, और आयातित उच्च-तकनीकी -उपचार को प्राथमिकता दिए जाने ने करोड़ों गरीबों को हाशिए पर धकेल दिया क्योंकि 'निजी स्वास्थ्य' अब नियम बन चुका था। "न्यूनतम पैकेजों" के रूप में प्रावधानों ने समेकित (कंप्रिहेंसिव) और सामुदायिक स्वास्थ्य पर प्राथमिकता ले ली।
सार्वजनिक स्वास्थ्य, वस्तुतः, सार्वजनिक स्वामित्व की माँग करता है - स्वामित्व का वह स्वरूप, जो स्वास्थ्य देखभाल सेवाएं प्रदान करने में पारदर्शिता सुनिश्चित कर सके और नागरिक सहभागिता को बढ़ावा दे सके। सार्वजनिक क्षेत्र क्लीनिकों, घरेलू स्वास्थ्य देखभाल कंपनियों, और बायोमेडिकल उद्यमिताओं का निर्माण आवश्यक दवाओं और मेडिकल तकनीकों का उत्पादन व वितरण और साथ ही साथ स्वास्थ्य सेवाओं को भी सुनिश्चित करने के लिए किया जाना चाहिए।
शेयरधारकों को प्राथमिकता और अधिकाधिक लाभप्रदता के संरचनात्मक अवरोधों से मुक्त हो कर, ये उद्यमितायें निरोधक व उपचारात्मक तकनीकों को प्राथमिकता देने, विद्यमान उपचारों की कमियों को दूर करने, और सार्वजनिक स्वास्थ्य की जरूरतों के अनुसार जहां आवश्यक हो, उत्पादों को लागत मूल्य या उससे भी कम पर उपलब्ध कराने में सक्षम हो सकेंगी।
इसके अतिरिक्त, वे सार्वजनिक तुलन पत्रों ( balance sheets) में राजस्व वापस ला सकती हैं, अक्षमताओं को घटा सकती हैं, और आपात स्थितियों के लिए क्षमता उभार ला सकती हैं। दवाओं,वैयक्तिक सुरक्षा उपकरणों (PPE), और अन्य मेडिकल उपकरणों जैसी आवश्यक वस्तुओं के विकास, उत्पादन और वितरण के लिए चाक-चौबंद सार्वजनिक क्षेत्र अधिसंरचना हमारी मेडिकल ज़रूरतों की आपूर्ति पर कारपोरेट एकाधिकार को तोड़ती है, नियामक मकड़जाल को घटाती है, और क्रिटिकल स्वास्थ्य उत्पादों और सेवाओं की सार्वजनीन व समतामूलक उपलब्धि की मांग करने की जनता की ताकत को बढ़ाती है।
सार्वजनिक उत्पाद के रूप में स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और समाज के लिए सहज सकारात्मक लाभ प्रदान करता है। यदि हम आर्थिक प्रगति का संकीर्ण तर्क भी लागू करें, तब भी विकासशील देशों में स्वास्थ्य में निवेश किये गए एक डॉलर से [ दो से चार डॉलर के बीच ] आर्थिक लाभ का अनुमान है। और उन डॉलरों का सबसे बेहतरीन उपयोग तब होता है जब राष्ट्रों और समुदायों के पास अपनी खुद की ज़रूरतों की प्राथमिकताएं तय करने और दीर्घकालिक संस्थागत निर्माण में, जो आने वाले वर्षों तक अपने समुदाय की सेवा कर सके, निवेश करने की स्वायत्तता हो।
क्यूबा और वियतनाम जैसे देशों ने दिखाया है कि, अपने सीमित बजट के बावजूद भी, ऐसे सार्वभौम स्वास्थ्य देखभाल तंत्र को विकसित करना संभव है जो प्राथमिक और निरोधात्मक देखभाल को प्राथमिकता देने के साथ ही प्रथम श्रेणी के स्वास्थ्य परिणाम देने वाली चाक चौबंद सार्वजनिक स्वास्थ्य अधिसंरचना का भी निर्माण कर सके। [ निजीकृत स्वास्थ्य देखभाल व्यवस्था की तुलना में सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल व्यवस्था में निवेश का बेहतर परिणाम लाने में योगदान दिखाया जा चुका है ] स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र को बाजार के हितों के बंधन से मुक्त करना प्राथमिक और निरोधात्मक देखभाल पर पुनः केंद्रित कर पाना, समतामूलक उपलब्धि की योजना बना पाना, और चाक चौबंद सामुदायिक स्वास्थ्य पहुँच सुनिश्चित कर पाना संभव बनायेगा - जो आमतौर पर स्वास्थ्य देखभाल सेवा के लाभप्रद हिस्से नहीं होते। इसके अतिरिक्त, सामुदायिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए लक्षित कार्यबल विकास कार्यक्रम भी बनाए जा सकते हैं। ये कार्यक्रम स्थाई, भरोसेमंद सार्वजनिक क्षेत्र रोजगार भी देते हैं जो अपने आप में सामुदायिक स्वास्थ्य में बेहतरीन निवेश है।
सार्वभौम प्रभुसत्ता वाले राष्ट्रों द्वारा अपनी सार्वजनिक क्षेत्र स्वायत्तता की वापस दावेदारी में समुदाय की जरूरतों को प्राथमिकता देने के लिए वर्तमान दानदाता आधारित-वित्त पोषित शीर्ष -से- नीचे की ओर वर्टिकल रोग नियंत्रण कार्यक्रमों की प्राथमिकता से मुक्त होने की ज़रूरत है। किसी एकल रोग के उच्छेद के लिए लक्षित वर्टिकल हस्तक्षेप अधिकांशतः महंगे और और न्यून व मध्य आय राष्ट्रों पर उनकी उस सार्वजनिक स्वास्थ्य अधिसंरचना के क्षैतिजीय (horizontal) उन्नयन की क़ीमत पर थोपे गए होते हैं जो दीर्घकालिक आधार पर समूची आबादी की सेवा करते हुए स्थानीय स्वास्थ्य व्यवस्था को और मजबूत व प्रभावी बना सकती थी। ऐसा वर्टिकल हस्तक्षेप आंतरिक प्रतिभा पलायन में भी योगदान करता है जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र से कुशल-प्रतिभाशाली लोग ऊँचे वेतन पर काम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय और एनजीओ संगठनों में जाने लगते हैं।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य निर्णय के क्षेत्र में राष्ट्रीय संप्रभुता वापस हासिल करने के लिए ढांचागत पुनर्समायोजन शर्तों को उलटना और क़र्ज़ों, दानदाताओं के ग्रांट और विदेशी फंडिंग को इनकी शर्तों से मुक्त किया जाना अनिवार्य है। प्रत्येक भागीदार राष्ट्र की, चाहे वह शुद्ध प्रदाता हो अथवा प्राप्तकर्ता, निर्णय-प्रक्रिया में जनतांत्रिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए वैश्विक स्वास्थ्य प्रबंधन-प्रशासन प्रणाली की आमूल-चूल पुनर्संरचना निर्णायक रूप से महत्वपूर्ण है। वैश्विक स्वास्थ्य प्रबंधन प्रणाली के पास अनिवार्य रूप से ऐसे संस्थागत उपाय होने चाहिए जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि राष्ट्रों के ऊपर पड़ने वाला बाहरी प्रभाव उनकी राष्ट्रीय संप्रभुता के मातहत ही रहे, और यह भी कि बिना जनतांत्रिक मैंडेट के वैश्विक स्वास्थ्य संगठनों की गतिविधियों पर अंकुश लग सके और ऐसी गतिविधियों के प्रभाव राष्ट्रीय सरकारों के प्रति जवाबदेह बन सकें।
वैश्विक स्वास्थ्य प्रशासन और वित्तीय संस्थाओं में सबसे हाशिए के और उन समुदायों का प्रतिनिधित्व महत्वपूर्ण है जो औपनिवेशीकरण और ढांचागत पुनर्समायोजन से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं, जिससे कि उनकी प्राथमिकताएं और परिप्रेक्ष्य वैश्विक स्वास्थ्य एजेंडा और विकास प्राथमिकताओं पर आ सकें। इसके अतिरिक्त, समुदाय का और ज़्यादा सशक्तिकरण, भागीदारी और स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं का निजीकरण समाप्त करने की प्रक्रिया की योजना बनाने में उन्हें शामिल करना स्वास्थ्य देखभाल के जनतंत्रीकरण में सहायक होने के साथ ही पारदर्शिता, नागरिक उत्तरदायित्व, व निगरानी के अधिकाधिक अवसर भी उपलब्ध करा सकता है।
सार्वजनिक हित के लिए स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र की वापस दावेदारी के साथ साथ जल और ऊर्जा जैसी आवश्यक सेवाओं की दावेदारी भी जोड़ी जानी चाहिए। सार्वजनिक ऊर्जा और जल में निवेश - और इसी से जुड़ी हुई जीवाश्म ईंधन से निवेश वापसी - पर्यावरण को मजबूती प्रदान करेगी और सार्वजनिक स्वास्थ्य की आधारभूत अधिसंरचना की कहीं अधिक समतामूलक उपलब्धि सुनिश्चित करेगी।
दुनिया के बहुत सारे देशों में सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए सबसे विकट चुनौतियों में अभी भी टीबी, मलेरिया, और निचले रेस्पिरेटरी संक्रमण जैसी संक्रामक बीमारियां हैं, जो सभी स्वच्छ जल और बेहतर जीवन दशाओं की उपलब्धि, वायु गुणवत्ता और साफ-सफाई जैसे सामाजिक निर्धारक कारकों से गहरे अंतर्संबंधित हैं। सार्वजनिक हित के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य की दावेदारी की किसी भी रणनीति को अनिवार्य रूप से सामाजिक निर्धारक कारकों पर केंद्रित करना होगा और इसी के साथ अर्थव्यवस्था के उन तमाम क्षेत्रों में जन शक्ति की वृद्धि के लिए प्रयास करना होगा जो मानव जीवन की आधारभूत दशाओं और हमारे ग्रह के स्थायित्व के लिए जिम्मेदार हैं।
कोविड-19 पेंडेमिक ने उन तमाम मिथकों की पुनर्समीक्षा और पुनर्मूल्यांकन के लिए अवसर की खिड़की खोली है जो वैश्विक स्वास्थ्य की टूट चुकी व्यवस्था को रोके हुए हैं। और ऐसा अवसर प्रदान करते हुए, उसने हमारे लिए एक सचमुच का वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र बना सकने का भी अवसर प्रदान किया है : एक ऐसा वैश्विक स्वास्थ्य तंत्र, जो समतामूलक, समावेशी, और जन-केंद्रित हो।
पूंजीवाद की छीण होती हुई आलोचना पर्याप्त नहीं है। यह समय है एक ऐसे विश्व की परिकल्पना का, जहां मानव जीवन और पर्यावरणीय स्थायित्व सर्वोच्च और पहली प्राथमिकताएं हों, और जहां स्वास्थ्य का सार्वजनीन अधिकार समूची सार्वजनिक नीति का आधार हो।
इस सार्वभौम अधिकार पर निर्मित व्यवस्थातंत्र - जो वैश्विक एकजुटता की शक्ति से संचालित होता हो - केवल मुमकिन ही नहीं है - हमारी प्रजाति के अस्तित्व के लिए, यह अनिवार्य है।
यह लेख हमारे कोविड-19 की वार्षिकी पर प्रकाशित 'मानव जीवन के लिए मेनिफेस्टो' ऋंखला का हिस्सा है। कृपया मेनिफेस्टो पर यहां हस्ताक्षर करें।